स्मृति शेष | डॉ. बिंदेश्वर पाठक

शुष्क शौचालय की समाप्ति की दिशा में नई क्रांति लाने वाले डॉ. बिंदेश्वर पाठक अब हमारे बीच नहीं रहें। स्वतंत्रता की 77वीं वर्षगांठ पर,शौचालय क्रांति के अग्रदूत और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक ने 80 वर्ष मे दुनिया को अलविदा कहा। सुबह सुलभ इंटरनेशनल के केंद्रीय कार्यालय में ध्वजारोहण के बाद अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। इसके बाद उन्हें AIIMS ले जाया गया, जहां उनका निधन हो गया।

डॉ.पाठक 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किये गये थे। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया है। बिंदेश्वर पाठक बिहार के वैशाली के रहने वाले थे।

वर्ष 1943 में जन्मे डॉ. बिंदेश्वर पाठक की प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई।बाद मे आगे की पढ़ाई के लिए वो पटना चले गए जहा उन्होने बी.एन.कॉलेज से समाजशास्त्र में स्नातक किया।और शिक्षक बन गए। डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो अपनी मां योगमाया देवी के ज्यादा करीब थे। उनकी मां कहा करती थीं कि कोई व्यक्ति यदि मदद के लिए आए तो उसे वापस नहीं भेजना चाहिए। व्यक्ति खुद के लिए नहीं, बल्कि दूसरों की मदद के लिए पैदा होता है। यही बात बिंदेश्वर जी ने गांठ बांध ली थी। कुछ ही दिनों बाद वो पटना में गांधी शताब्दी समारोह समिति के भंगी-मुक्ति प्रकोष्ठ में बतौर स्वयंसेवक जुड़ गए। यह उनका लक्ष्य नहीं था।लेकिन समिति के जनरल सेक्रेटरी सरयू प्रसाद के कहने पर डॉ. बिंदेश्वर पाठक मानवाधिकारों और छुआछूत पर काम करने के लिए बिहार के बेतिया जिले चले गए। बेतिया में कार्य करने के दौरान एक वाक्या ऐसा हुआ, जिसने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी।

एक दिन बाजार में एक सांड ने एक बच्चे पर हमला कर दिया। वहां मौजूद लोग और वो कुछ साथियों के साथ बच्चे को बचाने दौड़े, तभी किसी ने कह दिया कि यह मैला ढोहने वालों का बच्चा है। फिर क्या था,लोग पीछे हट गए। उन्होंने अकेले बच्चे को अस्पताल पहुंचाया। महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित डॉ. बिंदेश्वर ने छुआछूत और मैला ढोहने की कुप्रथा के खिलाफ कार्य करने की ठानी।

डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने शौचालय की सुविधा आमजन तक पहुँचाई, मैला ढोने, छुआछूत जैसी कुप्रथा को समाप्त करने की दिशा में कार्य करते हुए 1968 में डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय बनाया, जिसे कम खर्च में आसपास मिलने वाली सामाग्री से बनाया जा सकता था। यह तकनीक आगे चलकर बेहतरीन वैश्विक तकनीकों में से एक मानी गयी। वर्ष 1970 में सुलभ इंटरनेशनल सर्विस आर्गेनाइजेशन की नींव पड़ी। आज डॉ. बिंदेश्वर पाठक की सुलभ संस्था देश में 12,000 से अधिक सार्वजनिक शौचालय, 16.91 लाख से अधिक घरों में शौचालय, 35,551 से अधिक स्कूलों में शौचालय, 2554 मलिन बस्तियों में शौचालय, 250 से अधिक बॉयोगैस प्लांट, 15 से अधिक आदर्श गांव बना चुकी है। वो 17 हजार से अधिक लोगों को मैला ढोने की कुप्रथा से बाहर ला चुकी हैं। 

डॉ. बिंदेश्वर पाठक के प्रयास से ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने 19 नवंबर 2013 को वर्ल्ड टॉयलेट डे के रूप में मान्यता दी। डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने वर्ष 2012 में वृंदावन की विधवाओं के लिए सुलभ शौचालय बनवाए और उनकी आजीविका और पढ़ने-लिखने की व्यवस्था की।साथ ही उन्हें 2000 रुपए प्रतिमाह देना शुरू किया।

आज भले सरकार खुले में शौच, शुष्क शौचालयों और मैला ढोने की कुप्रथा की समाप्ति का दावा करती है, लेकिन समाज के लिए उल्लेखनीय कार्य डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने किए।

आज उनकी संस्था मानव अधिकार, पर्यावरण, स्वच्छता, ऊर्जा के गैर-पारंपरिक स्रोतों, अपशिष्ट प्रबंधन और सामाजिक सुधारों के लिए काम करती है।

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