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क्या असर डालेगा कानूनों में बदलाव | आखिर धारा 377 क्या है?

Bushra Aslam | New Delhi | नई दिल्ली- पिछले दिनो केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा लोकसभा में विधेयक पेश किए गए है, ये तीनो नए विधेयक भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट) की जगह लेंगे.
क़ानूनी विशेषज्ञो के अनुसार नए क़ानून अंग्रेजो के क़ानूनों से बहुत अलग नहीं हैं. इनकी 80 फ़ीसदी भाषा आपस मे मिलती है, पर  इसमें कुछ बदलाव किए गए हैं.

जो कुछ इस तरह से है- भारतीय दंड संहिता, 1860 की जगह प्रस्तावित की गई 'भारतीय न्याय संहिता, 2023' में आईपीसी की धारा 377 को खत्म दिया गया है.

आखिर धारा 377 क्या है? 

आईपीसी की धारा 377 के अनुसार "यदि कोई व्यक्ति अप्राकृतिक यौन संबंध बनाता है तो उसे आजीवन कारावास या जुर्माने साहित दस साल की क़ैद हो सकती है।" 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द कर दिया था। जजमेंट मे कहा गया कि बालिगो मे सहमति से किए गए किसी तरह के यौन संबंध अपराध की श्रेणी मे नही लाए जा सकते। क्योंकि भारतीय संविधान मे समानता, जीवन, अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है।

हालांकि,साथ मे न्यायाधीशों ने ये भी कहा कि बिना अनुमति के बगैर बनाए गए यौन संबंध को धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी मे रख्खा जाएगा।

किन्तु भारतीय न्याय संहिता के  इस बदलाव धारा 377 को पूर्ण रूप से हटा देने से न केवल समलैंगिकता, अपितु पुरुषों और महिलाओं के बीच सहमित या गैर-सहमति से हुए एनल एव ओरल सेक्स को भी ग़ैरक़ानूनी घोषित कर देगा।

धारा 377 का उपयोग का कारण 

देश में बलात्कार से जुड़े क़ानूनो का आधार जेंडर पर निर्भर है। यानी क़ानून मे केवल पुरुष ही महिला से संबंध स्थापित कर सकता है। किन्तु धारा 377 मे  पुरुष-पुरुष और पुरुष- ट्रांसजेंडर के संबंध से जुड़े मामलों में सुरक्षा की गारंटी दी गई है।

धारा-377 से जुड़े मामलों का प्रतिनधित्व कर चुके दिल्ली के क्रिमिनल लॉयर मिहिर सैमसन ने कहा कि,"धारा 377 के इतिहास का विवादित रहना दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि ये एकमात्र ऐसा क़ानून है जिसका इस्तेमाल कोई भी व्यक्ति, पुरुषों के बीच हुए यौन उत्पीड़न मामलों में कर सकता है।"

उन्होंने बोला कि ट्रांस-व्यक्तियों के संबंध में ये अनुभव "समान" नहीं रहे हैं।

सैमसन ने कहा कि,"चंद सीमित मामलों में पुलिस ने ट्रांसजेंडर के विरुद्ध यौन उत्पीड़न की रक्षा हेतु इस धारा को लागू किया है।"

दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका लंबित 

मैरिटल रेप के मामलों में भी धारा 377 लगाई गई है। कुछ मामलो मे जहां पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ उसकी सहमति के बिना एनल या ओरल सेक्स करने पर धारा 377 के तहत मामला दर्ज किया गया हैं,आरोप तय हुए और गिरफ़्तारियां भी की गई। लेकिन इस बात पर दुविधा बनी हुई है कि मैरिटल रेप मामलों में धारा 377 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं।

ऐसा इसलिए है चूकि बलात्कार की परिभाषा में बिना सहमति ओरल और एनल सेक्स भी शामिल है। पर शादी-शुदा पुरुषो पर इस धारा के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

मौजूदा समय में दिल्ली हाईकोर्ट मे एक याचिका लंबित है जो धारा 377 का इस्तेमाल पतियों के खि़लाफ़ किया जा सकता है या नहीं को स्पष्ट करने की मांग करती है।

सुप्रीम कोर्ट शीघ्र ही आईपीसी के तहत मैरिटल रेप से जुड़े अपवाद की वैधता पर सुनवाई शुरू करेगा। जो पति को पत्नी की बिना सहमति से बनाए गए यौन संबंध मामले में दंडित होने से राहत देता है।

नए बिल से क्या बदलाव होगे? 

यौन अपराधों के मामलों में नाबालिग को अभी भी "लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012" के तहत संरक्षित किया जाता है। इस कानून से पहले,धारा 377 का इस्तेमाल नाबालिग लड़कों से यौन संबंध बनाने वाले व्यस्क पुरुषों के विरुद्ध किया जाता था।

कानून के जानकारों का मानना है कि धारा 377 को खत्म करने मे  सरकार ने जल्दबाज़ी की है। इससे पुरुषों और ट्रांसजेंडर्स को मिलने वाली सुरक्षा भी अब समाप्त हो जाएगी।

सैमसन का कहना हैं कि "धारा 377 के पूर्ण रूप से खत्म हो जाने से, यौन उत्पीड़न के मामलों में पुरुषों को अब कोई सुरक्षा नहीं मिलेगी।"

वहीं ट्रांस-व्यक्तियों के ख़िलाफ़ यौन शोषण के मामलों में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18 के तहत अधिकतम दो साल की सजा तय है।

अपराधिक मामलो के जानकार सैमसन कहना हैं कि "यह सज़ा बहुत कम है और पुलिस भी ट्रांसजेंडर अधिनियम को लागू करने में धुलमूल रवैय्या बरतती है।"

नए बिल मे क्या सुरक्षा दी जा सकती है? 

नए बिल में कुछ ऐसी धाराएं बरकरार रखी गई हैं जिनका इस्तेमाल विशेष परिस्थितियों में किया जा सकता है।

नए बिल की धारा 138 में अनुसार किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का अपहरण करने या उसे "अप्राकृतिक यौन संबंध" का शिकार बनाने पर सम्बन्धित व्यक्ति को 10 साल की सजा दी जा सकती है।

धारा 38 के तहत यदि कोई व्यक्ति किसी की "अप्राकृतिक वासना" से बचाव करने में सामने वाले की हत्या कर दे तो ये हत्या अपराध नहीं मानी जाएगी। लेकिन इन शब्दों को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है।

न्यायालयों ने पूर्व मे भी "अप्राकृतिक वासना" शब्द का उपयोग पुरुष के आपसी यौन संबंध या वयस्क पुरुष और बच्चे के बीच यौन संबंधित मामलों की सुनवाई मे किया है।

लेकिन नए प्रस्तावित विधेयक मे यह सिर्फ उन्हीं मामलों में लागू होगी जहां अपहरण का मामला भी दर्ज होगा।

इस धारा मे कुछ चुनौतियाँ भी हैं। सैमसन कहते हैं कि "ये धाराएं वर्तमान आईपीसी में भी मौजूद हैं पर हम इन्हें नियमित रूप से लागू होते नहीं देखा जाता हैं।"

इसके अतिरिक्त इनका उपयोग सिर्फ कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही किया जाएगा।

सैसमन ने कहा,"पहले,आपको व्यक्ति का अपहरण हुआ है यह साबित करना होगा।
उनका कहना हैं कि 'प्राकृतिक' और 'अप्राकृतिक' यौन संबंध के बीच का अंतर अपने आप में पेचीदा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी 2018 में धारा 377 को आंशिक रूप से रद्द करते समय इस बात को रेखांकित किया था।

कानूनी विशेषज्ञों ने नए बिलों की आलोचना की है, वे नहीं चाहते कि मौजूदा धारा 377 को नए क़ानून में जगह दी जाए। सैमसन कहते है कि,"महिलाओं से रेप के संदर्भ में मौजूद जेंडर आधारित क़ानून को बरकरार रखकर,"एक ऐसी धारा ड्राफ्ट की जाए…जो समलैंगिक और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को यौन उत्पीड़न से बचाता हो।"

नए बिलों को समीक्षा के लिए फिलहाल गृह मामलों की स्थायी समिति भेजा गया है,वो इसमें बदलाव की सिफारिश करेगी।

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