क्या डार्विन की थ्योरी गलत थी? जानिए विकासवाद का पूरा सच
एक 'खतरनाक' विचार जिसने दुनिया बदल दी
इतिहास में कुछ ही वैज्ञानिक विचार इतने क्रांतिकारी, विवादास्पद और मौलिक रूप से परिवर्तनकारी रहे हैं, जितना कि चार्ल्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत। 1859 में जब डार्विन ने अपनी कालजयी कृति "ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़" (On the Origin of Species) प्रकाशित की, तो इसने न केवल जीव विज्ञान, बल्कि धर्म, दर्शन और समाज की चूलें हिला दीं।
आज, 160 से अधिक वर्षों के बाद भी, "डार्विनवाद" को लेकर बहस जारी है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि डार्विन की थ्योरी "गलत" थी या यह "सिर्फ एक थ्योरी" है।
लेकिन क्या यह सच है? क्या आधुनिक विज्ञान ने डार्विन को गलत साबित कर दिया है?
इसका संक्षिप्त और स्पष्ट उत्तर है: नहीं, डार्विन की थ्योरी "गलत" नहीं थी।
वास्तव में, यह आधुनिक जीव विज्ञान (modern biology) की आधारशिला है। लेकिन, यह समझना बेहद ज़रूरी है कि 1859 में डार्विन द्वारा दिया गया मूल सिद्धांत निस्संदेह "अधूरा" (incomplete) था। विज्ञान एक सतत प्रक्रिया है। यह ईंट पर ईंट रखकर एक इमारत बनाने जैसा है। डार्विन ने वह मज़बूत नींव रखी, जिस पर पिछले 160 वर्षों से जीव विज्ञान की भव्य इमारत खड़ी की गई है।
विज्ञान की प्रगति के साथ, इस सिद्धांत को न केवल सही साबित किया गया है, बल्कि इसे और ज़्यादा मज़बूत, विस्तृत और सटीक बनाया गया है।
इस लेख में, हम इस यात्रा की गहराई से पड़ताल करेंगे। हम समझेंगे कि डार्विन का मूल विचार क्या था, वे क्या महत्वपूर्ण बातें नहीं जानते थे, और कैसे 20वीं और 21वीं सदी के विज्ञान ने उन अंतरालों को भरकर विकासवाद को जीव विज्ञान का 'एकीकृत सिद्धांत' (unifying theory) बना दिया।
1. डार्विन का मूल सिद्धांत: "प्राकृतिक चयन" (Natural Selection) की शक्ति
डार्विन के सिद्धांत का मुख्य आधार एक सुरुचिपूर्ण (elegant) और शक्तिशाली तंत्र है जिसे उन्होंने "प्राकृतिक चयन" (Natural Selection) कहा।
डार्विन ने कोई प्रयोगशाला में बैठकर यह सिद्धांत नहीं गढ़ा था। उन्होंने एच.एम.एस. बीगल (H.M.S. Beagle) नामक जहाज पर पाँच साल तक दुनिया की यात्रा की। उन्होंने दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और विशेष रूप से गैलापागोस द्वीप समूह पर पौधों, जानवरों और जीवाश्मों का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया।
उन्होंने जो देखा, उससे कुछ मुख्य अवलोकन (observations) सामने आए:
अस्तित्व के लिए संघर्ष (Struggle for Existence): किसी भी वातावरण में संसाधन सीमित होते हैं। हर प्रजाति में पैदा होने वाले सभी जीव वयस्क होने तक जीवित नहीं रह पाते।
विविधता (Variation): एक ही प्रजाति के जीवों के बीच भी छोटे-छोटे, स्वाभाविक अंतर होते हैं। (जैसे, कुछ हिरण थोड़े तेज़ दौड़ते हैं, कुछ की नज़र थोड़ी तेज होती है)।
आनुवंशिकता (Inheritance): ये अंतर (variations) माता-पिता से उनकी संतानों में जाते हैं।
इन अवलोकनों के आधार पर, डार्विन ने अपना महान निष्कर्ष निकाला, जिसे हम प्राकृतिक चयन कहते हैं।
सरल शब्दों में यह प्रक्रिया ऐसे काम करती है:
किसी भी प्रजाति में, जीवों के बीच ये छोटे-छोटे अंतर (variations) मौजूद होते हैं।
इनमें से कुछ अंतर जीवों को उनके विशेष वातावरण में जीवित रहने और प्रजनन (reproduce) करने में बेहतर मदद करते हैं। (जैसे, ठंडे मौसम में घने फर वाला भालू)।
जो जीव अपने पर्यावरण के लिए बेहतर "फिट" होते हैं, वे ज़्यादा समय तक जीवित रहते हैं और ज़्यादा संतानें पैदा करते हैं।
चूँकि वे गुण आनुवंशिक होते हैं, इसलिए यह "लाभदायक" गुण अगली पीढ़ियों में ज़्यादा आम हो जाते हैं।
इसके विपरीत, जो जीव कम "फिट" होते हैं, वे कम संतानें पैदा कर पाते हैं, और उनके गुण धीरे-धीरे आबादी से कम हो जाते हैं।
लाखों वर्षों में, यह धीमा और निरंतर दबाव—जहाँ प्रकृति "चुनती" है कि कौन से गुण आगे बढ़ेंगे—एक प्रजाति को इतना बदल सकता है कि वह एक नई प्रजाति बन जाए।
यह मूल विचार—प्राकृतिक चयन के माध्यम से विकास—आज भी 100% सही और जीव विज्ञान का केंद्रीय स्तंभ माना जाता है।
गैलापागोस के फिंच (Finches) पक्षी इसका क्लासिक उदाहरण हैं। डार्विन ने देखा कि अलग-अलग द्वीपों पर फिंच की चोंच का आकार नाटकीय रूप से भिन्न था। उन्होंने सही अनुमान लगाया कि ये सभी एक ही पूर्वज फिंच से विकसित हुए थे। जिन द्वीपों पर मुख्य भोजन सख्त बीज थे, वहाँ मोटी, मज़बूत चोंच वाली फिंच जीवित रहीं (प्राकृतिक चयन)। जिन द्वीपों पर कीड़े-मकोड़े मुख्य भोजन थे, वहाँ पतली, नुकीली चोंच वाली फिंच सफल हुईं।
2. डार्विन का सिद्धांत "अधूरा" क्यों था? (The Missing Pieces)
डार्विन एक शानदार पर्यवेक्षक थे, लेकिन वे अपने समय की वैज्ञानिक सीमाओं से बंधे थे। उनका सिद्धांत "क्या" और "क्यों" की व्याख्या करता था, लेकिन "कैसे" की नहीं।
दो बड़े, मौलिक प्रश्न थे जिनका उत्तर डार्विन के पास नहीं था:
पहला लापता टुकड़ा: गुण कैसे منتقل होते हैं? (The Mechanism of Inheritance)
डार्विन को पता था कि गुण (traits) माता-पिता से बच्चों में जाते हैं। यह स्पष्ट था। लेकिन यह कैसे होता है? इसका तंत्र क्या था?
डार्विन के समय में, सबसे लोकप्रिय विचार "सम्मिश्रण आनुवंशिकता" (Blending Inheritance) का था—यह विचार कि संतानों के गुण उनके माता-पिता के गुणों का मिश्रण होते हैं (जैसे लाल और सफेद रंग मिलाकर गुलाबी रंग बनता है)।
डार्विन स्वयं इस विचार से जूझते रहे। अगर यह सच होता, तो कोई भी नया और फायदेमंद गुण कुछ ही पीढ़ियों में आबादी में "घुल" कर खत्म हो जाता, जिससे प्राकृतिक चयन के लिए कोई विविधता ही नहीं बचती।
विडंबना यह है कि डार्विन के जीवनकाल में ही, एक ऑस्ट्रियाई भिक्षु ग्रेगर मेंडल (Gregor Mendel) ने मटर के दानों पर प्रयोग करके आनुवंशिकता के वास्तविक नियम खोज लिए थे। मेंडल ने दिखाया कि गुण "घुलते" नहीं हैं; वे "जींस" (Genes) नामक असतत इकाइयों (discrete units) में पारित होते हैं।
लेकिन, मेंडल का काम डार्विन और उस समय के अधिकांश वैज्ञानिक समुदाय द्वारा अनदेखा कर दिया गया। यह 1900 के आसपास ही फिर से खोजा गया। डार्विन को कभी जींस (Genes) या डीएनए (DNA) के बारे में पता नहीं चला।
दूसरा लापता टुकड़ा: नए गुण कहाँ से आते हैं? (The Source of Variation)
प्राकृतिक चयन काम करने के लिए "विविधता" (variation) पर निर्भर करता है। लेकिन यह विविधता पहली बार आती कहाँ से है? क्यों एक भाई दूसरे से अलग दिखता है? क्यों अचानक एक भालू का फर पहले की पीढ़ियों की तुलना में थोड़ा घना होता है?
डार्विन के पास इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं था। वे केवल यह देख सकते थे कि विविधता स्वाभाविक रूप से होती है।
आज हम जानते हैं कि इस विविधता का अंतिम स्रोत "जेनेटिक म्यूटेशन" (Genetic Mutation) या उत्परिवर्तन है। म्यूटेशन डीएनए की प्रतिकृति (copying) प्रक्रिया में होने वाले यादृच्छिक (random) परिवर्तन या "गलतियाँ" हैं।
यह समझना महत्वपूर्ण है: म्यूटेशन यादृच्छिक होते हैं, लेकिन प्राकृतिक चयन यादृच्छिक नहीं होता है।
म्यूटेशन सिर्फ बदलाव पैदा करता है (अच्छा, बुरा, या तटस्थ)। प्राकृतिक चयन उन बदलावों को "चुनता" है जो उस विशेष वातावरण में फायदेमंद होते हैं।
डार्विन इन दो महत्वपूर्ण स्तंभों—जेनेटिक्स और म्यूटेशन—के बिना काम कर रहे थे। यह उनकी प्रतिभा को और भी उल्लेखनीय बनाता है कि उन्होंने केवल अवलोकनों के आधार पर ही इतने सटीक सिद्धांत का निर्माण कर दिया।
3. आज का सिद्धांत: "आधुनिक संश्लेषण" (Modern Synthesis)
1930 और 1940 के दशक में, जीव विज्ञान में एक क्रांति हुई। वैज्ञानिकों ने डार्विन के प्राकृतिक चयन को मेंडल की आनुवंशिकी के साथ सफलतापूर्वक मिला दिया।
इस नए, एकीकृत सिद्धांत को "आधुनिक संश्लेषण" (Modern Synthesis) या "नियो-डार्विनिज़्म" (Neo-Darwinism) कहा जाता है।
आधुनिक संश्लेषण = डार्विन का प्राकृतिक चयन + जेनेटिक्स (आनुवंशिकी)
इस संश्लेषण ने डार्विन के सिद्धांत को कमजोर नहीं किया; इसने उन कमियों को भर दिया जिन्हें डार्विन स्वयं नहीं भर सके थे। इसने "कैसे" का जवाब दिया:
विविधता कैसे उत्पन्न होती है? मुख्य रूप से जेनेटिक म्यूटेशन और यौन प्रजनन (genetic recombination) के माध्यम से।
गुण कैसे पारित होते हैं? डीएनए में कूटबद्ध (coded) जींस के माध्यम से।
लेकिन विज्ञान यहीं नहीं रुका। हमने डार्विन के मूल विचार को जीवाश्म विज्ञान (Paleontology), आणविक जीव विज्ञान (Molecular Biology), और भ्रूण विज्ञान (Embryology) जैसे कई अन्य क्षेत्रों के ज्ञान के साथ जोड़ दिया है।
जीवाश्म रिकॉर्ड: हमें "संक्रमणकालीन जीवाश्म" (transitional fossils) मिले हैं, जैसे आर्कियोप्टेरिक्स (Archaeopteryx) जो सरीसृपों और पक्षियों के बीच की कड़ी दिखाता है, या टिकटालिक (Tiktaalik) जो मछलियों और भूमि-जीवों के बीच की कड़ी है।
आणविक जीव विज्ञान (DNA): यह शायद सबसे मज़बूत सबूत है। हम अब सीधे डीएनए की तुलना कर सकते हैं। यह तथ्य कि मनुष्यों और चिम्पैंजी का डीएनए 98.8% समान है, हमारे "समान पूर्वज" (common ancestor) होने का अकाट्य प्रमाण है।
डार्विन के समय में, विकासवाद एक आकर्षक परिकल्पना थी। आज, आधुनिक संश्लेषण के लिए धन्यवाद, यह एक मज़बूती से स्थापित वैज्ञानिक तथ्य है, जिसे सबूतों के विशाल पहाड़ का समर्थन प्राप्त है।
4. आम ग़लतफ़हमियाँ (Common Misconceptions)
डार्विन के सिद्धांत को अक्सर गलत समझा जाता है, जिससे यह धारणा बनती है कि यह "गलत" है। आइए कुछ सबसे आम ग़लतफ़हमियों को दूर करें:
ग़लतफ़हमी 1: "इंसान बंदरों से विकसित हुए हैं।"
सच्चाई: यह सिद्धांत का सबसे आम और गलत सरलीकरण है। डार्विन का सिद्धांत यह नहीं कहता कि इंसान आज के बंदरों (जैसे चिम्पैंजी या गोरिल्ला) से विकसित हुए हैं।
यह कहता है कि इंसानों और आज के वानरों (Apes) के पूर्वज एक ही (common ancestor) थे। यह एक पारिवारिक वृक्ष (family tree) की तरह है। चिम्पैंजी हमारे "पिता" नहीं हैं; वे हमारे "चचेरे भाई" (cousins) हैं। हम दोनों एक ही पर-पर-परदादा (लाखों साल पहले रहने वाले एक वानर-जैसे जीव) से विकसित हुए हैं, लेकिन हमारी विकासवादी शाखाएँ अलग-अलग दिशाओं में चली गईं।
ग़लतफ़हमी 2: "यह सिर्फ एक 'थ्योरी' (Theory) है।"
सच्चाई: यह "थ्योरी" शब्द के वैज्ञानिक और आम भाषा के अर्थ के बीच का भ्रम है।
आम भाषा में: 'थ्योरी' का मतलब 'अंदाज़ा', 'परिकल्पना' या 'अनुमान' होता है (जैसे, "मेरी थ्योरी है कि बारिश होगी")।
विज्ञान में: 'थ्योरी' का मतलब पूरी तरह से अलग है। एक वैज्ञानिक थ्योरी (Scientific Theory) प्रकृति के किसी पहलू की एक सुस्थापित, परीक्षण-सिद्ध व्याख्या (well-substantiated, test-proven explanation) होती है, जो बहुत सारे सबूतों पर आधारित हो और जिसकी बार-बार पुष्टि की जा चुकी हो।
विकासवाद की थ्योरी उसी श्रेणी में है जिसमें "गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत" (Theory of Gravity), "जर्म थ्योरी" (Germ Theory of Disease), या "सेल थ्योरी" (Cell Theory) हैं। यह विज्ञान का सर्वोच्च स्तर का स्पष्टीकरण है, कोई कच्चा अंदाज़ा नहीं।
ग़लतफ़हमी 3: "यह जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life) की व्याख्या करता है।"
सच्चाई: यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण भेद है। डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत यह नहीं बताता कि जीवन शुरू कैसे हुआ। यह इस बारे में है कि जीवन शुरू होने के बाद वह कैसे बदला, विविधतापूर्ण हुआ और आज के जटिल रूपों में विकसित हुआ।
जीवन की उत्पत्ति के अध्ययन को "एबायोजेनेसिस" (Abiogenesis) कहा जाता है—निर्जीव रसायनों से पहले जीवित कोशिका का निर्माण। यह एक अलग, यद्यपि संबंधित, वैज्ञानिक क्षेत्र है जिस पर अभी भी शोध जारी है। डार्विन का सिद्धांत तब शुरू होता है जब पहली जीवित कोशिका अस्तित्व में आ चुकी थी।
निष्कर्ष: जो अधूरा था, वह पूरा हुआ
तो, क्या डार्विन गलत थे? बिलकुल नहीं।
डार्विन एक पहेली (jigsaw puzzle) को देख रहे थे और उन्होंने इसका सबसे महत्वपूर्ण, केंद्रीय टुकड़ा खोज निकाला: प्राकृतिक चयन। उन्होंने हमें खेल का मुख्य नियम बताया।
हाँ, वे नहीं जानते थे कि पहेली के बाकी टुकड़े (जींस, डीएनए, म्यूटेशन) कहाँ हैं। वे नहीं जानते थे कि वे टुकड़े कैसे दिखते हैं। लेकिन उनके द्वारा खोजा गया केंद्रीय टुकड़ा इतना सटीक था कि उसने आने वाली पीढ़ियों के वैज्ञानिकों को बाकी टुकड़ों को खोजने और उन्हें सही जगह पर फिट करने के लिए मार्गदर्शन दिया।
डार्विन का सिद्धांत गलत नहीं हुआ; यह विज्ञान की प्रगति के साथ और ज़्यादा विकसित (evolved) हो गया है।
आज, डार्विन द्वारा शुरू की गई क्रांति पहले से कहीं अधिक मज़बूत है। विकासवाद का सिद्धांत वह धागा है जो जीव विज्ञान के हर पहलू—जेनेटिक्स से लेकर चिकित्सा तक, जीवाश्म विज्ञान से लेकर पारिस्थितिकी तक—को एक साथ पिरोता है। यह वह प्रकाश है जिसके बिना, जैसा कि एक प्रसिद्ध जीवविज्ञानी ने कहा था, "जीव विज्ञान में किसी भी चीज़ का कोई मतलब नहीं रह जाता।"
